समान नागरिक संहिता को हिंदू मुस्लिम के भाव से ना देखें

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भारत: के विधि आयोग ने देश में समान नागरिक संहिता कानून को लागू करने के लिए सभी धार्मिक पक्षों से सुझाव एवं आपत्तियां आमंत्रित की हैं। जब से यह कार्य शुरू हुआ है तब से संपूर्ण देश के धार्मिक एवं राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम नागरिकों में समान नागरिक संहिता कानून पर एक बहस छिड़ गई है। सत्ता पक्ष इसे भारतवासियों के समान अधिकारों के लिए आवश्यक कहकर इसे लागू करने के पक्ष में है। वहीं विपक्ष इसे हिंदू ध्रुवीकरण की कोशिश कहते हुए मुस्लिमों के लिए इसे नुकसानदायक बता रहा है।

अगर हम समान नागरिक संहिता के विषय को भारतीयता की भावना से देखते हैं तो हम सभी यह महसूस करेंगे कि भारत में रहने वाले प्रत्येक भारतवासी के समान अधिकारों की रक्षा के लिए कानून का लागू होना महत्वपूर्ण भी है और आवश्यक भी है। यह देश और समाज के विकास को एक मजबूत आधार प्रदान करेगा। परंतु यदि कोई इसे हिंदू मुस्लिम की संकीर्ण मानसिकता के साथ देखेंगे तो यह समाज को मजबूती देने की जगह समाज का बटवारा करने वाला ही नजर आएगा।

विषय यह है कि जब संपूर्ण राष्ट्र एक है तो इसमें रहने वाले विभिन्न लोग चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ या क्षेत्र के हों वे राष्ट्र से अलग कैसे हो गए? हम जोर-शोर से भारत की विविधता में एकता का गुणगान करते हैं तो क्या यह मात्र शब्दों में ही उलझाने के लिए है? जब हम एक राष्ट्र की बात करते हैं तो एक समान कानून सभी पर लागू होने में इतनी परेशानी क्यों?

समान नागरिक संहिता को लागू करने की आवश्यकता अभी से महसूस नहीं हुई यह तब भी थी जब इस देश पर अंग्रेजों का राज था। अंग्रेज वास्तव में भारत पर अपना व्यापारिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए ही आए थे। उन्होंने भी 1860 में एक देश एक कानून की आवश्यकता समझी थी, परंतु उस समय में भी इसी तरह के धार्मिक संगठनों के विरोध के बाद अंग्रेजों ने इंडियन पेनल कोड तो लागू कर दिया परंतु इंडियन सिविल कोड लागू नहीं किया। अंग्रेजों को तो मात्र अपना व्यापार करना था, उन्हें राष्ट्रीय एकता से क्या लेना देना था इसलिए उन्होंने इस विषय को कभी गंभीरता से नहीं लिया। आजादी के बाद जब भारत का अपना संविधान लिखा गया तो संविधान निर्माताओं ने संविधान के अनुच्छेद 44 में यह लिखा था कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना सरकार का दायित्व है।

आज इस विषय का विरोध करने वालों को यह भी सोचना चाहिए कि क्या उस समय संविधान निर्माताओं ने भी ध्रुवीकरण के चलते यह लिखा था? स्वतंत्रता के बाद कितने वर्षों तक शासन करने के बाद भी इस कानून को लागू ना कर पाना शर्म की बात है। ऐसे में वर्ग विशेष का ध्रुवीकरण किसने किया? राजनीतिक लाभ के लिए समुदाय विशेष को लक्षित किसने किया? किसने सिर्फ वोट बैंक की राजनीति की और कौन संविधान में वर्णित एक राष्ट्र एक विधान की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाया? स्वतंत्रता के बाद बनी सरकारें तो गुलाम मानसिकता से बाहर ही नहीं आई और केवल अपने राजनैतिक लाभ के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नीति एवं नियमों का ही अनुसरण करती रही। कभी भी समान नागरिक संहिता को लागू करने का प्रयास ही नहीं किया गया।

आज स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की सरकार अगर एक राष्ट्र एक विधान को राष्ट्रहित में लागू करने का प्रयास कर रही है तो उन पर ही ध्रुवीकरण करने का आरोप लगाया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता के बाद कई वर्षों तक सत्ता में रही। इसी सरकार ने वर्ष 1950 में हिंदू मैरिज एक्ट बनाया जिसमें मुसलमानों को बाहर रखा गया। वर्ष 1991 में पूजा स्थल कानून बनाया जिसमें हिंदुओं के अधिकार छीने गए, मुसलमानों को बाहर रखा गया। वर्ष 1992 में वर्ग विशेष को लाभ देने के लिए माइनॉरिटी कमिशन एक्ट बनाया। 1995 में वक्फ एक्ट में बदलाव कर मुसलमानों को अनाधिकृत अधिकार दिए गए।

वर्ष 2010 में विदेशी चंदे के लिए (फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट) कानून बनाया गया। वर्ष 2012 में शिक्षा का अधिकार कानून बनाया परंतु मदरसों को इससे बाहर रखा गया। साफ जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी की सरकारों ने एक तरफा कानून बनाकर समुदाय विशेष को लाभ पहुंचाए। अपने राजनीतिक लाभ के लिए मुस्लिमों का ध्रुवीकरण किया परंतु आज जब देश के सभी लोगों को समान अधिकारों का कानून लागू करने का प्रयास हो रहा है तो इसे समुदाय विशेष को लक्षित करने का भ्रम क्यों फैलाया जा रहा है? इसे ध्रुवीकरण की मानसिकता से क्यों देखा जा रहा है?

अगले 25 वर्षों में पराधीनता के निशानों को मिटा कर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का लक्ष्य प्रधानमंत्री मोदी जी ने दिया है। आज विश्व में अधिकतर आधुनिक एवं विकसित देशों अमेरिका, आयरलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, तुर्की आदि में समान नागरिक संहिता कानून लागू है। भारत में हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के लिए कानून भारतीय संविधान पर आधारित है जबकि मुसलमानों के अपने कानून है जो शरीयत पर आधारित है।

भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर होने वाले भेदभाव को समाप्त करना है। परंतु वर्तमान में भारत में एक बड़ा वर्ग धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है। प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूल में महिलाओं एवं पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है। परंतु इतने वर्षों बाद भी समान नागरिक संहिता का लागू ना होना, मूल अधिकारों एवं संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है।

सभी के लिए कानून में समानता से देश के नागरिकों में एकता बढ़ेगी, सरकार पर धार्मिक दबाव नहीं रहेगा, न्यायपालिका का कार्य आसान होगा, राजनीतिक पार्टियां भी वोट बैंक की राजनीति नहीं कर पाएंगी और मुस्लिम महिलाओं को भी उनके अधिकार मिलेंगे और उनकी स्थिति में सुधार आएगा। इसलिए समान नागरिक संहिता को भारतीयता के भाव से देखा जाना चाहिए ना कि हिंदू मुस्लिम के राजनीतिक चश्मे से। इससे देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ेगा।

डॉ. अवनीश कुमार सह-प्रोफ़ैसर

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